Wednesday, 7 October 2020

*चश्मा- एक लघुकथा*******************जल्दी -जल्दी घर के सारे काम निपटा, बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि...फिर पिताजी की आवाज़ आ गई,*"बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो ।"*और बहू झल्लाती हुई....सॉल्वेंट ला, चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती, लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहू को बुलाना बन्द नही हुआ।समय से खींचातानी के चलते अब बहू ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया ।आज ऑफिस की छुट्टी थी तो बहू ने सोचा -घर की साफ- सफाई कर लूँ ।अचानक,पिताजी की डायरी हाथ लग गई । एक पन्ने पर लिखा था-दिनांक 23/2/15 आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता । वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा...।आज पिताजी को गुजरे ठीक 2 साल बीत चुके हैं। अब मैं रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ। उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में.....।जीवन में हम कुछ महसूस नहीं कर पाते और जब तक महसूस करते हैं तब तक वह हमसे बहुत दूर जा चुकी होती हैं ......Start valuing your relations before it's too late🙏💐सुप्रभात 👨‍👩‍👧‍👦🌹