बाबूजी ने करवट बदली और खखारे, ज़ोर लगा कर लरज़ते सुर में बोले,बेटा! आठ मार्च तो कल ही है ना? मैंने झुंझलाहट में भरकर, लहजे में कुछ तेज़ी लाकर, कहा कि कितनी बार बताऊं। ये ही काम बचा है मेरा, टेप करा कर रख देता हूं, उसको ही तुम सुनते रहना, मेरा पीछा छोड़ो बाबा। आठ मार्च को क्या है ऐसा? क्या कोई जागीर मिलेगी? ख़ामोशी छा गई थी कुछ पल। पहले गीली आंखें पोंछीं, लहजे में फिर शहद घोल कर, सहमें सहमें आहिस्ता से, बोले मेरा जनम दिवस है, कल मैं पचहत्तर का हूंगा। ज़हरीले से सुर में मैंने,चुटकी लेते हुए कहा था, तुम्हें बुढ़ापे में भी बाबा, कितनी चाहत है जीने की,अरे ज़िन्दगी में से बाबा, एक साल कम हो जाएगा। बाबूजी फिर प्यार से बोले, बेटा जब तू बच्चा था ना, मेरी गोद में बैठ के तेरा, रोज़ाना का काम यही था, मेरा बर्डे कब है बाबा? तेरा माथा चूम के फिर में, रोज़ रोज़ ये बतलाता था। फिर हम दोनों, रोज़ाना ये प्लान बनाते, ग़ुब्बारे औ केक, खिलौने, डेकोरेशन कैसे होंगे? मैं तो कभी नहीं झुंझलाया, तेरे पास तो समझाने को मैं था बेटा। मेरे पास तो तू है बेटा। पचहत्तर का जब मैं हूंगा, ढाई सौ रुपए मेरी पिन्शन बढ़ जाएगी। मेरा चश्मा उतर गया है, ठीक दिखाई नहीं दे रहा, सोच रहा था, नम्बर लेकर बनवा लेंगे। तुझ पर क्यों कर बोझ बढ़ाऊं। मेरी ऐसी उम्र में बेटा बूढ़े बच्चे एक बराबर, तेरे भी तो दांत नहीं थे, मेरे भी अब दांत नहीं हैं, याददाश्त भी साथ नहीं है। एक बात ही बार बार तब तू भी पूछा करता था, एक बात ही बार बार अब मैं भी पूछा करता हूं। तेरे पास तो बाबूजी थे, मेरे पास तो तू है बेटा। तेरे पास तो बाबूजी थे, मेरे पास तो तू है बेटा। ~सलीम आफ़रीदी