#श्राद्धक्योंपितृपक्ष के सोलह दिन! ये दिन अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ होने के दिन है। ये नतमस्तक वंशावलियों के आभारी होने के दिन है, परंतु ये सतही भावनाओं में बहने के दिन नहीं है! ये प्रार्थनाओं के दिन है।अक्सर लोगों के मन में प्रश्न उठते है -* यदि पुनर्जन्म है, तो आत्मा ने तो दूसरा शरीर ले लिया — तो श्राद्ध क्यों?* यदि वह सदा आत्मा ही रहती है तो पुनर्जन्म की अवधारणा क्या ग़लत है?इस गुत्थी को सुलझाने के लिए संस्कारों की अवधारणा को समझना ज़रूरी है। आत्मा जब शरीर छोड़ती है और दूसरा शरीर धारण करती है (पुनर्जन्म) तो वह इस जन्म के अर्जित संस्कारों को अपने साथ ले जाती है।ये संस्कार और कुछ नहीं बस वे “गहरी भावनाएँ” है जिन्हें उसने इस जन्म में बहुत शिद्दत से जीया होता है। जैसे किसी के प्रति अति मोह, किसी के प्रति गहरा क्रोध, कोई ग्लानि, कोई क्षोभ, कुछ भी...कुछ भी ऐसा जिसने उस व्यक्ति के मन पर बहुत-बहुत गहरा प्रभाव डाला हो। वे क़िस्से और उनकी स्मृतियाँ शरीर के साथ यहीं छूट जाते है पर वे “प्रभाव” (impressions) संस्कार बन कर साथ चले जाते है — आगे के जन्मों में।अपने पितृजनों को इस जन्म के उन राग-द्वेष प्रभावों से मुक्त हो सकने की प्रार्थनाओं के दिन है ये !श्राद्ध करने से क्या होगा ??* श्राद्ध विदा ले चुकी आत्मा की शांति के लिए होता है।* आत्मा की शांति यानी उस आत्मा को यह संदेश देना के तुम्हारे वंशज तुम्हारे कृतज्ञ है,* कि तुम्हारे वंशज तुम्हारे अधूरे छूटे दायित्वों को सम्हाल लेंगे।मंत्रोच्चार और अन्य विधि विधान इसलिए के उस आत्मा को इन उद्वेलित करने वालों भावों (जो उसने इस जन्म में अर्जित किए) से मुक्त होने में सहायता मिल सके।विदा ले चुकी आत्माओं तक हमारी तीव्र भावनाओं की तरंगे पहुँचती है इसीलिए कहा जाता है के जो चला गया उसके लिए अपशब्द नहीं कहने चाहिये क्योंकि हमारा प्रेम उस आत्मा (जहाँ भी वह है) को सबल बनाने में सहयोग करता है और घृणा उसे कमज़ोर बनाती है, उनकी याद में पीड़ा प्रेषित करना उन्हें विचलित करता है। किसी भी शरीर और युग में हों — है तो हम सभी आत्माएँ ही ! बतौर आत्मा एक दूजे को सबल बना कर ही कर्मचक्र से मुक्ति सम्भव है।इसलिये, जन्म और जीवन देने वाले पितृजनों की आगे की यात्रा के लिए, कृतज्ञ वंशजों के तौर पर यह हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी।#beautifullife #hindisuvichar