Saturday, 6 July 2024

मुझे अपनी पड़ोस में रहने वाली महिला इसीलिए अच्छी नहीं लगती थी क्यूँकि वो अपने बच्चों को आया के पास छोड़ कर नौकरी करने जाती थी। मैं ही क्या, किसी को भी उसे ग़ैर ज़िम्मेदार कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई।मैं एक सहेली से इसलिए नाराज़ थी कि वो पढ़ाई करते हुए प्रेम में थी।एक स्त्री से इसीलिए नाता तोड़ दिया था क्यूँकि उसने अपने वैवाहिक जीवन को तोड़ने का निर्णय लिया, ज़रा भी मुश्किल नहीं हुई उसे कलुषित घोषित करने में, आसान था,सिर्फ़ इसीलिए क्यूँकि पहल एक स्त्री ने की। मैं उस स्त्री से इसलिए ख़फ़ा थी क्यूँकि उसके ससुराल वाले उसे खुश नहीं थे, मैंने ये कभी जानना ही नहीं चाहा कि क्या वो खुश है अपने ससुराल वालों से, ज़रूरी लगा ही नहीं कभी।संस्कार हीन समझा उन स्त्रियों को को अच्छा खाना नहीं बना पायी। कभी ये दिखा ही नहीं की वो ख़ुद को एक अच्छी इंजीनियर या डॉक्टर बना पायी है। उन स्त्रियों को हिक़ारत की नज़र से देखना जो अपने घर में ख़ुशियाँ नहीं बिखेर पायी। नैतिकता और समाज के पहनाये चश्मों से ना जाने कितनी ही स्त्रियों को मैंने ग़लत देखा और ग़लत समझा, शायद उन्होंने भी ठीक इसी तरह बहुत सी स्त्रियों को ग़लत समझा होगा, इस शृंखला में ना जाने कितनी ही स्त्रियाँ अलग-थलग हुई होंगी। मेरा उन सब से क्षमा माँगने का दिल करता है, उनका पक्ष भी सुनने का मन करता है,उनकी पीड़ा को, उनके भावों को,उनके अभावों को, जानने का मन करता है।कितना ही समय लगता है दूसरों का जीवन सिर्फ़ देख कर उसके बारे में राय बना लेने में और उसे अच्छे या बुरे किसी एक श्रेणी में डाल देने में?हम नाम मात्र की भी कोशिश नहीं करते, किसी के जीवन को, उसके मनोभाव को समझने की, हम हमेशा जल्दी में होते हैं, अच्छा ढूँढने में, ख़ुद से ऊपर, ख़ुद से अच्छा, सर्वश्रेष्ठ को ढूँढते रहते हैं, और उसी के साथ रहना चाहते हैं, उसी को चाहना चाहते हैं, लेकिन उन सबका क्या जो अपने जीवन संघर्ष में मदद चाहते हैं, शायद उनका पीड़ित होना भी हमारी इसी खोज का नतीजा है,समाज ने निःसंकोच बना डाली स्त्रियाँ जो स्त्रियों से बैर कर सके, ताकि ये समाज चल सके।ये जिम्मेदारियां ये रिश्ते नाते,सबमें मेरी ही कमी क्यूं निकाली जाती है,क्या मैं इन सबका हिस्सा नहीं,क्या मुझे अपना समझा ही नहीं गया,हां मैं परिपक्व नहीं हूं,नही हूं पारंगत हर काम में में,हर रिश्ते नाते को निभाने में,मगर कोई मां के पेट से तो सीखकर नही आता न,तो मेरी कमियों पर मुझे ,ताने क्यूं सुनाए जाते हैं,मुझे समझाया भी तो जा सकता है,प्यार से संभाला भी तो जा सकता है,मेरी गलतियों पर चीखने की जगह,कोशिश अच्छी है ,ये भी तो कहा जा सकता है,मैं नहीं रही भरे पूरे परिवार में,तो मुझे रिश्तों की इतनी समझ भी नही,मगर अपनी ममता से ,मुझे भी रिश्तों का पाठ पढ़ाया तो जा सकता है,जहां लगे की मुझसे भूल हो सकती है,वहां मेरे साथ खड़े रहकर ,बिगड़े हालातों को संभाला तो जा सकता है,और मेरी कमियों पर ,क्यूं कहते हैं की मां ने ,कुछ सिखाया नही तुमको,बजाय ये कहने के,मुझे अपनी बेटी का दर्जा ,भी तो दिया जा सकता है,सब छोड़ छाड़कर आना ,इतना आसान तो नही होता न,अपने अपनो के बगैर रहना ,तो फिर ससुराल बनने से पहले ,मुझे मायके जैसा लाड भी तो दिया जा सकता है,(उन लड़कियों के लिए जिन्हे ससुराल में कोई समझने वाला नही मिलता,जिन्हे जाते ही सौंप दी जाती है जिम्मेदारियों की गठरी वो भी पूरी उम्मीदों के साथ)