हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है.... ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं.....ये हमारे बालाख़ाने, ये कोठे, हमारे मक़बरे हैं जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजाकर रख दिये जाते हैं....हमारी कब्रे पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं ताकि......मैं ऐसी ही खुली हुई क़ब्र की एक बेसब्र लाश हूँ जिसे बार-बार ज़िंदगी बरगला कर भगा ले जाती हैलेकिन अब मैं अपनी इस आवारगी और ज़िंदगी की इस धोखेबाज़ी से बेज़ार हो गई हूँ, ....थक गई हूँ.... मैं डर गई उसकी ज़मीन न जाने कैसी थी ? जहाँ-जहाँ मैं पाँव रखती थी, वो वहीं-वहीं से धँस जाती थी...देख न बिब्बन .....वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे! मेरी ही तरह कटी हुई!! .....ना मुराद......... कमबख़्त! ...................................................................................................................................मीना कुमारी और अशोक कुमार कमाल अमरोही की ' 𝐏𝐚𝐤𝐞𝐞𝐳𝐚𝐡 - (𝟏𝟗𝟕𝟐) '