Thursday, 12 September 2024

एक अज्ञात कवि की एक "सुंदर कविता", जिसके एक-एक शब्द को, बार-बार "पढ़ने" को "मन करता" है-_*ख्वाहिश नहीं, मुझेमशहूर होने की," _आप मुझे "पहचानते" हो,_ _बस इतना ही "काफी" है।_😇_अच्छे ने अच्छा और__बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,_ _जिसकी जितनी "जरूरत" थी_ _उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!__जिन्दगी का "फलसफा" भी__कितना अजीब है,_ _"शामें "कटती नहीं और_ -"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!__एक अजीब सी__'दौड़' है ये जिन्दगी,_ -"जीत" जाओ तो कई_ -अपने "पीछे छूट" जाते हैं और__हार जाओ तो,__अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं!_😥_बैठ जाता हूँ__मिट्टी पे अक्सर,_ _मुझे अपनी_ _"औकात" अच्छी लगती है।__मैंने समंदर से__"सीखा "है जीने का तरीका,_ _चुपचाप से "बहना "और_ _अपनी "मौज" में रहना।__ऐसा नहीं कि मुझमें__कोई "ऐब "नहीं है,_ _पर सच कहता हूँ_ _मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।__जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से_,_मेरे "दुश्मन",_ -एक मुद्दत से मैंने_ _न तो "मोहब्बत बदली"_ _और न ही "दोस्त बदले "हैं।__एक "घड़ी" खरीदकर_,_हाथ में क्या बाँध ली,_ _"वक्त" पीछे ही_ _पड़ गया मेरे!_😓_सोचा था घर बनाकर__बैठूँगा "सुकून" से,_ -पर घर की जरूरतों ने_ _"मुसाफिर" बना डाला मुझे!__"सुकून" की बात मत कर--बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता!_😓😥_जीवन की "भागदौड़" में__क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?_ -हँसती-खेलती जिन्दगी भी_ _आम हो जाती है!_😢_एक सबेरा था__जब "हँसकर "उठते थे हम,_😊 -और आज कई बार, बिना मुस्कुराए_ _ही "शाम" हो जाती है!_😓_कितने "दूर" निकल गए__रिश्तों को निभाते-निभाते,_😘 _खुद को "खो" दिया हमने_ _अपनों को "पाते-पाते"।_😥_लोग कहते हैं__हम "मुस्कुराते "बहुत हैं,_😊 _और हम थक गए_, _"दर्द छुपाते-छुपाते"!😥😥_खुश हूँ और सबको__"खुश "रखता हूँ,_ _ *"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए_* *-मगर सबकी "परवाह" करता हूँ।_😇🙏**_मालूम है_**कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी_* *कुछ "अनमोल" लोगों से_* *-"रिश्ते" रखता हूँ।*