Sunday, 14 March 2021

एक कविता मेरे बचपन के स्कूल संस्मरण से:मैं तो वही खिलौना लूंगा - सियारामशरण गुप्त मैं तो वही खिलौना लूंगा मचल गया दीना का लालखेल रहा था जिसको लेकर राजकुमार उछाल-उछाल।व्यथित हो उठी मां बेचारी- था सुवर्ण-निर्मित वह तो !‘खेल इसी से लाल, नहीं है राजा के घर भी यह तो !‘राजा के घर! नहीं-नहीं मां, तू मुझको बहकाती है,इस मिट्टी से खेलेगा क्या राजपुत्र, तू ही कह तो ।फेंक दिया मिट्टी में उसने, मिट्टी का गुड्डा तत्काल,‘मैं तो वही खिलौना लूंगा – मचल गया दीना का लाल ।‘मैं तो वही खिलौना लूंगा – मचल गया शिशु राजकुमार,‘वह बालक पुचकार रहा था पथ में जिसको बारम्बार ।‘वह तो मिट्टी का ही होगा, खेलो तुम तो सोने से ।दौड पडे सब दास-दासियां राजपुत्र के रोने से ।‘मिट्टी का हो या सोने का, इनमें वैसा एक नहीं,खेल रहा था उछल-उछलकर वह तो उसी खिलौने से ।राजहठी ने फेंक दिए सब अपने रजत-हेम-उपहार,‘लूंगा वहीं, वही लूंगा मैं! मचल गया वह राजकुमार