यूँ तो चमचा कहकर,हर कोई चमचे का मजाक उडा देता है,पर वो क्या जानता नहीं,चमचा किस-किस काम आता है,गर चमचा न हो तो,गरमा-गर्म दाल में हाथ कौन डाले,गर चमचा न हो तो,कड़वी दवाई को कौन झेले,चमचा ही तो हर गर्मी को ठंडा कर देता है,चमचा ही तो हर तकलीफ को सहन कर लेता है,देखो चमचा कैसे गर्म दूध में चला जाता है,चावल को मिलाकर खीर पकाकर लाता है,गर चमचा न होता तो, कितनों के हाथ जल गए होते,गर चमचा न होता तो,कितनों को छाले पड़ गए होते,सोचो चमचा की तपस्या कितनी है,सोचते उसमें जान न उतनी है,कैसे बिलकुल निढाल रहता है,तुम्हारी ढाल बनके रहता है,आग में, पानी में, दूध में,चमचा ही तो तपता है,तेरा ही तो ख्याल रख के,हर चीज़ लाकर देता है,चमचा गर्मी, ठंडक झेल लेता है,चाय में डालो की, आइश्क्रीम में,तुम्हें न कुछ अहसास होने देता है,अपनी भावनाओं को संभाल लेता है,चमचे की तपस्या, बहुत बड़ी है मेरे यार,उसी तपस्या से तप-तप कर, तभी तो पाया प्यार,तभी तो खाना बनानेवाली, चमचे को खुशी से चूम लेती है,क्योंकि इसी से, अपनी उंगलियाँ बचा लेती है,चमचा है, बड़े काम की चीज़,पर पता नहीं लोग क्यों करते हैं, खीज,किसी को किसी का चमचा बनते देख,क्यों वो उसमें निकालते मीन और मेख,चमचा बनना, न इतना आसान है,हर मुसीबत झेलना, न इतना आसान है,अपने अरमानों को मारना, न इतना आसान है,अपने-आपको खो देना,न इतना आसान है,चुप वो रहता है, सहता है सब,गर्मी हो, ठंडक हो, सबको देता है, सब,उसकी तपस्या पे गौर करो,हर काम वही तो कर लाता है,तुम्हारे हाथ से पहले,वही तो तुम्हारे मुँह में जाता है,तभी तो चमचे, बड़ों के मुँह लगे होते हैं, इस आदत से पले होते हैं,दूर इनको कैसे करोगे,ये तो बड़े भले होते हैं,चमकता है जो चम-चम,तभी तो वह है चमचा,उसकी चमक, उसकी दमक से है,तभी तो वह है चमचा,अब तो, चमचो की, आदत-सी हो गयी है,न जाने, उंगलियाँ, कहाँ खो गयी हैं,हमें जिन्दगी के, अहसास का क्या पता,हमें न आग की, तपिस का पता,न हमें पानी की, ठंडक का पता,हमें शहद की, चिपचिपाहट का क्या पता,हमें अचार की, चिरपिराहट का, क्या पता,हर चीज़ हम, चमचे से निकालते हैं,उसी चमचे को, मुँह में डालते हैं,हाथों की उँगलियों को, संभाल रखा है,तभी तो हमने चमचा, पाल रखा है,चमकती है,जिसकी चाम,चमकाता है जो,दूसरों की चाम,Lucky Charm है,जो दूसरों के लिए,उसे ही चमचा,बनाया जाता है,चमकती + चाम = चमचाचाम = Charm = चर्मइसलिए चमकते चमचे से,चीजें मुँह में डालते हैं,वस्तु एवं मुँह में चमचे से,संतुलन को साधते हैं ।अंग्रेजों की यही खाशियत है,छुरी-काँटे से खाते हैं,चमचों से दूरी बनाते हैं,कार्य ईमानदारी से कराते हैं । --- ध्यानाचार्य--- शब्दों की उत्पत्ति कैसे हुई ?--- पुस्तक से साभार