खून अपना हो या पराया होनस्ल ए आदम का खून है आखिरजंग मशरिक में हो या मगरिब मेंअम्न ए आलम का खून है आख़िरबम घरों पर गिरें कि सरहद पररूहे-तामीर जख्म खाती हैखेत अपने जलें या औरों केजीस्त फाकों से तिलमिलाती हैटैंक आगे बढ़ें या पीछे हटेंकोख धरती की बांझ होती हैफतेह का जश्न हो या हार का सोगजिंदगी मय्यतों पे रोती हैजंग तो खुद ही एक मसला हैजंग क्या मसअलों का हल देगीखून और आग आज बरसेगीभूख और एहतियाज कल देगीइसलिए ए शरीफ इंसानोंजंग टलती रहे तो बेहतर हैआप और हम सभी के आंगन मेंशम्मा जलती रहे तो बेहतर है।✍️…साहिर लुधियानवी