#वो_कैसी_औरतें_थीं...जो गीली लकड़ियों को फूंक कर चूल्हा जलाती थींजो सिल पर सुर्ख़ मिर्चें पीस कर सालन पकाती थींसुबह से शाम तक मसरूफ़, लेकिन मुस्कुराती थींभरी दोपहर में सर अपना ढक कर मिलने आती थींजो दरवाज़े पे रुक कर देर तक रस्में निभाती थींपलंगों पर नफ़ासत से दरी-चादर बिछाती थींबसद इसरार मेहमानों को सिरहाने बिठाती थीं अगर गर्मी ज़्यादा हो तो रुहआफ्ज़ा पिलाती थींजो अपनी बेटियों को स्वेटर बुनना सिखाती थीं जो "क़लमे" काढ़ कर लकड़ी के फ्रेमों में सजाती थींदुआएं फूंक कर बच्चों को बिस्तर पर सुलाती थींअपनी जा-नमाज़ें मोड़ कर तकिया लगाती थींकोई साईल जो दस्तक दे, उसे खाना खिलाती थींपड़ोसन मांग ले कुछ तो बा-ख़ुशी देती-दिलाती थींजो रिश्तों को बरतने के कई गुर सिखाती थींमुहल्ले में कोई मर जाए तो आँसू बहाती थींकोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास जाती थीं कोई त्योहार पड़ जाए तो ख़ूब मिलजुल कर मनाती थींवह क्या दिन थे किसी भी दोस्त के हम घर जो जाते थेतो उसकी माँ उसे जो देतीं वह हमको खिलाती थींमुहल्ले में किसी के घर अगर शादी की महफ़िल होतो उसके घर के मेहमानों को अपने घर सुलाती थींमैं जब गांव अपने जाता हूँ तो फ़ुर्सत के ज़मानों में उन्हें ही ढूंढता फिरता हूं, गलियों और मकानों मेंमगर अपना ज़माना साथ लेकर खो गईं हैं वो किसी एक क़ब्र में सारी की सारी सो गईं हैं वो...।😔